अंतर्मन - मानव का वो साथी है जो उसको हमेशा अहसास दिलाता है की मानव भगवान का अंश है सच्चे अर्थो में हमेशा साथ खड़ा रहने वाला दोस्त अंतर्मन ही तो है जो हमेशा हमे कुछ भी गलत करने से रोकता है किसी भी काम से पहले मन कहता है रुक, सोच ले और हर गलत कदम पे वो अहसास कराता है कि भगवान देख रहा है लेकिन, आदमी अंतर्मन की आवाज को अनसुना कर आगे बढ़ता है; सभी गलत काम करता है, लोगो को ठगता है और फिर कहता है कि अच्छा हुआ जो ये काम कर लिया, कितना पैसा कमा लिया (जबकि उस समय भी अंतर्मन कहीं डर रहा होता है)

जब यह योजना बनी की अंग्रेजी ब्लॉग में रोसेन लगातार कुछ लिख रही है और मैं पंचतत्व में हिंदी ब्लॉग की कमी को पूरा करूँ तो मुझे लगा कि अंतर्मन की आवाज से बेहतर और क्या होगा लिखने को - जिसे हम सब सामने नहीं आने देना चाहते कोशिश है एक छोटी सी अंतर्मन की दशा बताने की - अगर लगे कि मैं उस आवाज को सुन पाया हूँ तो स्वागत करना; अन्यथा, एक दोस्त की तरह मुझसे इस बात की मंत्रणा करना कि क्यों मैं चाह कर भी अंतर्मन की आवाज़ सुन नहीं पाया

Monday, December 27, 2010

समाज के अन्धविश्वास

कल मेरे पड़ोस में हमारी एक भाभी अपने बड़े बेटे पर गुस्सा कर रही थी की क्यूँ उसने छोटे बेटे को लांघ दिया और अब छोटे वाले की लम्बाई नहीं बढ़ेगी और छोटे वाला रो रहा था की अब उसकी लम्बाई नहीं बढ़ेगी | भाभी ने बड़े वाले बेटे को जबरदस्ती दोबारा छोटे बेटे के ऊपर से जाने को कहा जिससे पहली बार लाँघने का प्रभाव खतम हो जाए और इस् छीना झपटी में बड़ा बेटा इतनी जोर से गिरा की उसको सर में तीन टांके लगाने पड़े | मुझे इस् बात पर इतनी निराशा हुई की कैसे हम पढ़ लिखने के बाद भी ना जाने किन बंधनों में बंधे हैं | सोचने पर लगा की कैसे ये चीज़े समाज की भलाई के लिए बनाई गयी थी और कैसे ये अन्धविश्वास बन गयी | हमारे समाज के वो लोग जिन्होंने इतनी छोटी चीजों को कितनी गहरे से सोचा और नियम बनाये बच्चो के लिए , बडो के लिए लेकिन हमने उनको कैसे अपने अन्धविश्वास बना लिए बिना ये सोचे की वो क्यूँ बनाये गए थे | सबसे पहले “लाँघने पर छोटा रह जाना” इसलिए बनाया गया था ताकि बच्चे खेल खेल में इसलिए एक दुसरे को न लांघे क्यूंकि अगर वो एक दुसरे के ऊपर गिर जायेंगे तो बहुत ज्यादा चोट खा बैठेंगे और अगर बच्चा बहुत छोटा है तो खतरा और भी ज्यादा | एक और मैं सुनता आया हु की “खाली कैंची नहीं चलानी चाहिए” वरना झगडा हो जाता है ; इसका कारण यह रहा होगा की ऐसा करने से कैंची के हाथ में लगने का डर होता है और बच्चे ऐसा न करे | एक तो हम सबके घरों में भी सब मानते है की “शाम के समय झाड़ू नहीं लगानी चाहिए “इसका कारण यह था की पहले बिजली नहीं होती थी, घर खुले होते थे और रात को अँधेरे के कारण यह दिखाई नहीं देता था की कहीं कोई सांप वगैरह छुप कर तो नहीं बैठा | इसी तरह “सुबह उठते ही झाड़ू लगनी चाहिए” इसका कारण यही था की अगर रात में कोई जानवर , कीड़ा मकोड़ा छुप कर बैठ गया है तो वो दिख जाए | पेडो और नदियों की पूजा का नियम इसलिए बनाया गया ताकि लोग इनको गन्दा न करे और पेडो की रक्षा करे लेकिन बड अमावस को हमारे पड़ोस में लगा पेङ लोग पूरी तरह उजाड़ देते हैं की उनकी पत्तियों से पूजा करेंगे | घर में वास्तविक अर्थ क्या था इन चीजों का वो कहीं खो गया है | भगवान महावीर ने नियम बनाया की सूरज ढलने के बाद खाना न खाए क्यूंकि उस समय रौशनी नहीं होती थी और पूर्ण शाकाहारी होने के कारण इस् बात की सम्भावनाये थी की अँधेरे में खाना खाने के कारण कुछ कीड़े खाने के साथ न दिखाई दे, लेकिन उस चीज़ को नियम बना लिया गया वहाँ भी जहां कीडो की सम्भावना ही नहीं है और रौशनी भी भरपूर है | इसी तरह मेरे एक मुस्लिम मित्र ने बताया की उनके यहाँ कुरान के अनुसार बकरीद पर वही लोग कुर्बानी कर सकते हो जिनकी माली हालत अच्छी हो और जिनके पास एक निश्चित मात्र में सोना और चांदी हो, लेकिन लोग कर्ज लेकर कुर्बानी कर रहे हैं | क्या आपको नहीं लगता की किन कारणों से हमने नियम बनाये लेकिन उनका क्या बना लिया हमने | मेरा आशय किसी की आस्था को ठेस पहुँचाना कदापि नहीं है, लेकिन में चाहता हू हम लोग सोचे की ऐसी चीज़े क्यूँ समाज में शुरू हो गई जो किन्ही मायनों में अर्थहीन दिखाई देती हैं | आप भी देख आपके घरों में भी ऐसे कौन से नियम होंगे जिनको बिना सोचे हम मानते रहते हैं और उनका क्या कारण था इसको हम बिलकुल भूल बैठे हैं | अगर आपको लगता है नहीं इनका कोई और प्रोयोजन है तो कृपया मेरी जिज्ञासा को अवश्य अपने बहुमूल्य विचारो से दूर करे |

Friday, December 10, 2010

मौन का खौफ

अपने मन की शांति के लिए जब मैंने सबसे बड़ा स्वार्थी बनने की सोची तो कुछ समय बाद लगा मैं समाज के सामने नग्न खड़ा हो जाऊं क्या ? उस समय कितने प्रश्न मेरे सामने आ कर खड़े हो गए जब मैं हर काम किसी और के लिए करना चाहता था | लोग जानना चाहते थे क्यों करना चाहता हू मै कोई भी काम जिस से समाज का कुछ भला होता हो ? क्या चाहता हू मैं, क्या मिलता है मुझे, जरूर कोई गुप्त अजेडा है, इसको वर्ल्ड बैंक से पैसा मिलता है क्या ? कितने प्रश्न, कितने चहरे, कितने सफ़ेद झूठ, कितने टूटते ख्वाब और परदे के पीछे बनते कितने प्लान | वो लोग जिन्हें मैंने अपनी छत्रछाया माना था उनके उधड़ते जिस्म, लोगो का कैसा इस्तेमाल, भावनाओ का कैसा खिलवाड़, अखबारों में छपने को फोटो खिंचवाती नकली मुस्काने और अखबारों में छपती ऐसी खबरे जिनका सच से कोई सरोकार नहीं | क्या-क्या नहीं देखा मैंने | सच बात तो ये है कि एक डर मेरे मन में घर कर गया है, अच्छा होने पर हो सकने वाले नुक्सान का डर | उन मौन लोगो का डर जो हर प्लान के पीछे होते हैं, वो मौन लोग जो हर चीज़ से भारी होते हैं, वो लोग जिनका मौन एक खोफ पैदा करता है, उन्ही मौन लोगो की जबानी समाज का सच लिखने की कोशिश है यह -

मौन स्वीकृति थी तेरी
और मै भी कहाँ कुछ बोला था
भ्रष्टाचार के कोलाहल में
जब एक सुशासन डोला था

मौन टूट गया जब तेरा
तब ही मैं भी बोला था
जिस दिन सुशासन की अर्थी पे
तू सगो के जैसा डोला था

कितने जाम चले थे तब
सत्ता के तहखानो में
जिस दिन सुशासन जल रहा था
मौन पड़े शमशानो में

जो तू बोला अखबार छपा
जो में बोला टीवी पे दिखा
हाल सुशासन के घर का
न कहीं दिखा, न कहीं छपा

एक और सुशासन आया है
देखो कैसा सीना ताने
चल जाल फेकते हैं दोनों
वो संग चले या म्रत्यु से मिले

कलुषित समाज के मालिक हम
सबसे काले, सबसे काले
तुम क्यों घूर के देखते हो
तुम ही हो हमारे रखवाले

बलि चढोगे तुम भी सब
एक एक करके आते जाओ
या मौन रहो, चुपके से जियो
जब मौत आये जाते जाओ

कल फिर से सुशासन आएगा
अपनी बाजुएं दिखायेगा
हम घेरेंगे, उसे मारेंगे
कोई न बचाने आएगा

चल मौन बैठ जाते है अब
और फिर से खेल खेलते हैं
बिक जाओ या मिट जाओ
बस एक नियम पे चलते है

Monday, December 6, 2010

लुप्त होती प्रजाति मानव को बचाए

कितनी दयनीय दशा में आज मानव जी रहा है किसी को भी इस बात की तनिक भी चिंता नहीं की अगर हम लोग इसी तरह मानव को लुप्त होते देखते रहे तो जल्दी ही इस दुनिया से यह प्रजाति खतम हो जायेगी मानव की दुर्दशा का अंदेशा इसी बात से लगाया जा सकता है की हमारे द्वारा बड़े बड़े प्रोजेक्ट चलये जा रहे हैं जो विभिन्न जानवरों को बचाने के लिए बनाये गए हैं लेकिन इस तरफ किसी का भी ध्यान नहीं है की मानव की भी रक्षा की जाए अगर दुनिया से मानव लुप्त हो गया तो इसी के साथ दया, करुणा, सहायता, रक्षा, नैतिकता इन सभी चीजों का भी नाश हो जायेगा आज मानव को बचाने को हम सभी को मिलकर कोशिश करनी होगी वरना आने वाला समय बहुत ही निर्दयी होने वाला है जब आदमी आदमी की जान का प्यासा होगा और उसको बचाने के लिए कोई आगे नहीं आएगा आज हमारे द्वारा मानव की हत्या उसके बचपन में ही कर दी जाती है और मानवता के समूल नाश की तरफ हम लोग बढ़ रहे हैं यह सोचना कितना अजीब है की सभी आदमी मानव होने का ढोंग कर रहे हैं और उसी मानव की हत्या कर रहे हैं आओ मेरे दोस्तों दुनिया में जिंदगी, मानवता, दया , करुणा और नैतिकता बचाने को हम लोग संघर्ष करे वरना आने वाले समय में हमारे अपने बच्चे आपस में लड़कर और एक दूसरे से दुश्मनी निभाने में ही पूरा समय बर्बाद कर देंगे अगर मानव की रक्षा होगी तो ही और जानवरों की रक्षा हो पायेगी यह बात हमे समझने की जरुरत है प्रकृति, मानवता और दुनिया को बचाने को आओ संघर्ष करे और मिलकर एक उदाहरण प्रस्तुत करे

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Tuesday, November 23, 2010

क्या आप भी पाखंडी हिंदू हैं ?

मैंने हिंदू धर्म में जन्म लिया और इसके जीवन दर्शन को लेकर हमेशा से मेरे मन में एक आदर भाव रहा है लेकिन, कालचक्र शायद इसे अपने पतन की ओर लेकर जा रहा है मुझे पीड़ा हो रही है कि हम सब इसको मानने वाले लोग कैसे मूक गवाह बन रहे हैं इस पतन के अगर जल्दी मेरे मन ने इस पीड़ा को बाहर न निकाला तो मैं जानता हू ये अच्छा नहीं, क्यूंकि मेरा मन व्यथित है उन सब चीजों से, जो धर्म को पतन की ओर लेकर जाती हैं किसी भी धर्म से जुडे लोगो का यूँ चुप हो जाना ही शायद कालांतर में वजह रहा होगा, हिंदू धर्म से नए धर्मो के उदय का क्यूँ सिद्धार्थ महलों में रहते हुए भी एक बेचैनी महसूस करते थे ? क्यूँ सिद्धार्थ ने इतना बड़ा कदम उठा लिया कि उन्होंने सब कुछ त्याग दिया ? क्यूँ सिद्धार्थ समाज के सुधार के लिए महावीर बन गए ?

आज इस पर मनन की जरुरत है ; इसके कारणों की जांच पड़ताल की जरुरत है कि क्यूँ आज सभी लोग शनि देव, साईं बाबा और बालाजी की पूजा करने लगे हैं ! क्यूँ गंगा को माँ कहते हैं और उसी में मल बहा देते हैं ! क्यूँ सबसे घटिया चीजों की मंदिर में चढाने को खरीदारी करते हैं ! क्यूँ हाथ की लकीरे हमारे कर्मो से ज्यादा महत्वपूर्ण हो गयी हैं ! क्यूँ हर तरफ वास्तु, गणेश वाणी और न जाने कैसे कैसे लोग सब जगह बैठ कर सभी को उपदेश दे रहे हैं ! क्यूँ हम लोग एक ऐसे बहाव में बहे जा रहे हैं जिसका कोई लक्ष्य नहीं ! कितना दुखद है ये देखना कि हमारी आने वाली पीढियां उन रुढियो में जकड रही हैं, जिनको छोड़ने में बरसो लग गए हमे इससे दुखद क्या हो सकता है कि नीम्बू मिर्ची बेचना अब एक धंधा है, इससे दुखद क्या होगा जब पंडित सौदा करता है किसी की मृत्यु के क्रिया कर्म करने को, इससे दुखद क्या होगा जब हमारे समाज के सबसे सभ्य लोग अपने नामो में परिवर्तन करते हैं अपने जीवन में खुशिया लाने को, कहाँ जा रहे है हम ? क्यूँ सिर्फ पाखंड हमारे जीवन का सबसे महतवपूर्ण हिस्सा बन गया है ? क्यूँ समाज के लिए कुछ करने से ज्यादा यहाँ कथाओ का आयोजन किया जाता है ? क्यूँ सभी धर्माचार्य पैसा बनाने की मशीन बने हुए हैं ? ऐसा लगता है जैसे मानसिक आघात हो गया है मुझे या समाज अपनी चेतना खो रहा है

क्या आप भी भारत के वो कंप्यूटर इन्जिनियेर है जो नीम्बू मिर्ची खरीदते हैं ? शनिदेव को दान करते हैं ? ब्रहस्पति वार को शेव नहीं बनाते ? मंगलवार को अंडा नहीं खाते ? अपने नाम की स्पेल्लिंग बदलते है ? सुबह अखबार में सबसे पहले अपनी राशि देखते है ? मंदिर के आगे से जाते हुए कानो को हाथ लगाते है ? छीख आने पर थोडा रुक के काम करते हैं ? शनिवार को लोहा नहीं खरीदते, गर्भ में लड़की को मार डालते हो ? समाज के लिए पूर्ण रूप से संवेदनहीन हो और समाज के लिए कुछ नहीं करते ?

आओ दोस्तों समाज को बदले हम प्रकृति पूजक लोग है, साधारण जीवन जीने में विश्वास रखते है धार्मिक क्रियाओं में छिपे अर्थो को समझे नाकि उन्हें अन्धविश्वास बना ले खुद पर ज्यादा भरोसा करे वास्तु से भगवान पर भरोसा रखे अपनी राशि से ज्यादा और गीता के कृष्ण की बात को समझे जब उन्होंने कहा कि कर्म कर फल की इच्छा मत कर

Wednesday, November 17, 2010

ख्वाब



समाज भ्रष्ट्र हो गया है या हम सब लोग एक ही रस्ते के सहयात्री हैं| कहते हैं समाज वही तो है जो हम हैं , हम सब लोग मिलकर समाज बनाते हैं और क्या कमाल है, वो बन जाता है एक भ्रष्ट्र समाज| क्या हमे बस इतना सा साहस नहीं करना है कि खुद को सुधार ले,अपने लिए कोई नियम बना ले | पर शायद अपने लिए कोई नियम बनाना सबसे मुश्किल होता है और इसीलिए हम भी सभी लगे हैं दुनिया को सुधारने में , बिना ये सोचे कि आओ देखे अपने को आइने में क़ि कैसे हमारे जिस्म मोटे हो रहे हैं,अकर्मणयता कैसे हमारी दिनचर्या में शामिल हो गयी है,कैसे भ्रष्ट्रता हमारी दैनिक जरुरत की तरह हमे अजीब नहीं लगती,कैसे जब हमारा स्वार्थ पूरा होता है तब हर बात माफ हो जाती है,कैसे हम अखबार पढते समय कहते हैं | हर जगह घूसखोरी - क्या होगा इस देश का? कैसे हम नकली दवा खाकर मरते रहते हैं और बस कहते हैं यहाँ हर चीज़ नकली है | ये उस समाज की बात है जिसके लिए कहा जाता है यहाँ मानव मुल्य अभी भी जिन्दा हैं , ये उस समाज की बात है जहां रिश्तों का लिहाज है अभी भी , ये उस समाज की बात है जहां दूध, घी, मसाले, पूजा की सामग्री, दवाई और तो और जानवरों के खाने का सामान भी नकली बनता है| आप क्या सोचते हैं आने वाले दिन कैसे होंगे , आपके अपने बच्चे क्या खाकर जिन्दा रहेंगे| मेरे खवाबो में कोई आकर कुछ कहता है मुझसे,सोचता हू ये सभ्य समाज मुझे भी कोई दिशा देगा सोचने की | इसीलिए एक ख्वाब को आपके साथ खर्च किया है |

ख्वाब

आज मेरे ख्वाबो में एक आदमी आया
उन ख्वाबो में जिनमे परियाँ आती थी
उन ख्वाबो में जिनमे सुख ही सुख था
हाँ, उन ख्वाबो में एक आदमी आया
नंग धडंग मैला कुचैला बिखरा सा आदमी
पिचका हुआ शरीर, निकली हुई हड्डियाँ
हाँ एक गन्दा सा आदमी मेरे ख्वाबो में आया
उन ख्वाबो में जिनमे परियाँ आती थी
में कुछ कहता उससे पहले ही कहने लगा
डरना मत, अपने साये से डरना मत
में चंडाल नहीं हूँ, में भी एक आदमी हूँ
हाँ ऐसा कहा ख्वाबो के उस आदमी ने
उसने कहा मुझसे डरता है, मुझसे
कपड़ो में छिपे अपने जिस्म को देख
आईने में चहेरे को देख,पिचकने लगा है
हाँ ऐसा कहा ख्वाबो के उस आदमी ने
कहने लगा मैंने मार देना चाह था गरीबी को
में लड़ता फिरता था जंगलियों की तरह
इसलिए खतम हो गया,पिघल गया मैं
हाँ ख्वाबो का आदमी मुझे यही सुनाता रहा
उसने कहा अब तू मत लड़ना जंगलियों की तरह
नोच ले जिसका चेहरा नोच सकता हो देख
फिर शहंशाह बना देंगे मेरे देश के भ्रष्ट्र लोग
हाँ ऐसा कहा ख्वाबो के उस आदमी ने
अब जब मैं पूरी तरह जाग चुका हूँ
सोच रहा हूँ उस अच्छे से आदमी के बारे में
जिस से सब डरते थे, जिसे सब अच्छा कहते थे
मुझेअच्छा सा डर बनना चाहिए या फिर शहंशाह
मेरे दोस्तों खुद से पूछ कर बताना मुझे

Sunday, November 7, 2010

बच्चा

कभी कभी समाज की जटिलता और हम लोगों की समाज के लिए बेरुखी देखकर मुझे अवसाद होता है | ऐसे में मेरा मन करता है कि कुछ देर सुकून के साथ अकेला बैठा रहूँ | कितनी बार मैं आसमान की तरफ देख कर भगवान से कहता हूँ - "काश मेरे पास कोई जादू की छड़ी हो तो मैं कैसे दुनिया के कुछ दुःख कम कर दूँ |" कितनी बार मेरी आंखे छलछला जाती हैं किसी बहुत ही छोटी सी विसंगति को देखकर | कितनी बार मुझे लगता है कि क्या मैं अवसाद से बुरी तरह ग्रस्त हो गया हूँ और कितनी ही बार लगता है कि इस से मुझे शक्ति मिलती है | बल्कि, सोचता हूँ कि मेरा शक्ति का स्त्रोत ही मेरा छोटी चीजों से अवसाद का होना है |

कुछ समय पहले मैंने कुछ लिखा था, बस से आते समय एक छोटे बच्चे को देखकर | मेरी कल्पना है यह, लेकिन मुझे विश्वास है कि मेरा अवसाद मुझे एक दिन इतनी शक्ति देगा जब मैं इस पूरे प्रकरण को दोहरा पाऊँगा |

बच्चा

वो आदम जैसा बच्चा था
सर गंजा, रंग का काला था
ना जाने कहाँ से आया था
छाती में हड्डी का घेरा
आँखों के नीचे रंग गहरा
पतली डंडी से पाँवों पर
एक घड़ा सा पेट टिका

आँखे झप झप कुछ इधर उधर
न जाने था क्या कुछ ढूंढ रहा
कूड़े की एक ऊँची ढेरी पर
नंगे पाँवो वो चलता था
न जाने था क्या सोच रहा
न जाने था क्या देख रहा

जब उत्सुकता से मैंने देखा
वो दौड़ा दौड़ा, भागा आया
हड्डी सा, एक हाथ उठा
बोला बस दे दो एक रूपया
मैं सम्मोहित और झकझोरा सा
अपने आँगन में बैठा हूँ
मन में है मेरे द्वन्द मचा
क्यों मानव जीवन मुझे मिला

जीवन की अब इस संध्या पर
जाना मैंने मानव होना
मन बोला चल, तू अब चल
वो भी तो एक मानव जीवन था
तब साथ लिया वो नंग धडंग
उसको घर पे अपने लाया
अब सुनता हूँ जब दुःख उसके
तो गुनता हूँ मैं सुख अपने
दाता ने मुझको क्या न दिया
ये आज मुझे है लगा पता
जीवन का आनंद है क्या
यह नंग धडंग ने बता दिया |

Monday, November 1, 2010

आपको क्या फायदा है इसको करने से?

"आपको क्या फायदा है इसको करने से?" - मैं कभी सोच भी नहीं सकता था कि ऐसा कोई प्रश्न इस दुनिया में किसी भी अच्छे काम के लिए पूछा जा सकता है |

एक चोर से पूछ सकते हैं, एक शराबी से, या फिर एक उग्रवादी से; लेकिन, एक आदमी से जो अपने घर के बाहर से कूड़ा उठाते समय अपने पडोसी का कूड़ा भी उठवा देता है और उसका पडोसी कहता है कि क्यूँ उठवाया उसका कूड़ा, "क्या फायदा है आपको इसको करने से?"
जब मैंने सोचा कि समाज के लिए कुछ करने को कहीं से शुरुआत की जाए और खुद ही कुछ काम करने शुरू किये तो मेरे सामने भी यह प्रश्न बार-बार आक़र खड़ा होने लगा कि "क्या फायदा है आपको इसको करने से?" मुझे समझ नहीं आता कि जब मैं एक पेड लगाने पर कहता हूँ कि ऐसा करना पर्यावरण के लिए अच्छा है तो वो आदमी अपनी निगाहों से मुझसे हमेशा यह क्यूँ पूछता है कि और क्या फायदा है आपको इसको करने से | एक इंसान ने पूछ ही लिया अभी, कि आपको वर्ल्ड बैंक से इसके लिए पैसे मिलते होंगे और जब मैंने कहा नहीं भाई, हम कुछ लोग हर महीने कुछ पैसे जमा करते हैं और उनसे ये काम करते हैं तो उसने कह दिया हांजी हर कोई यही कहता है | इतने पागल तो हम भी नहीं हैं की आप कहें और हम मान लें कि आप घर फूक के तमाशा देखते हैं | कितना यक्ष प्रश्न है यह अपने आप में कि क्या फायदा है आपको इसको करने से | सोचो इसके बिना हमने कुछ करना छोड़ दिया है इंसान कैसे इतना अजीब हो गया है समय के साथ कि अगर किसी काम में उसको कोई फायदा न दिखे तो वो उसको करता ही नहीं |
यदि आप भी यही सोचते हैं और हर किसी अच्छे काम के पीछे फायदा खोजते हैं तो कृपया थोडा सा बैठ कर सोचो कि जब आपका बच्चा बड़ा होगा और आपसे पूछेगा कि दादा जी आपकी इस उम्र में सेवा ??? क्या फायदा है इसको करने से ???
जब माँ बच्चे को पैदा करने से पहले उस से पूछेगी क्या फायदा है तुझे पैदा करने से ???

वैसे हम इंसान भगवान् की पूजा भी यही सोच कर करते हैं कि क्या फायदा है इसको करने से | जब हज़ार का फायदा होता है तो कुछ भगवन को भी चढाते हैं कि उसे भी कुछ फायदा हो जाए |

ये फायदे को देखने की दुनिया है अगर आप नहीं देख पाते तो आप अजीब हैं |

Saturday, October 23, 2010

क्या आपने कभी अपने अन्दर के गुस्से को देखा है छूकर , अगर नहीं तो उसको देखो, वो कैसे कितनी चादरों में लिपटा हुआ, मन मसोस कर बैठा हुआ है हम चाहते है शहर की सड़के अच्छी हो, हम चाहते हैं बहुत से लोग अपने काम समय से करे, जिस से जीना थोडा आसान हो जाए हम चाहते हैं क्यों कोई बोलता नहीं, लेकिन सोचते नहीं की हम भी उसी में से एक हैं उसी तरह न बोलते हुए, अपने गुस्से अपने विद्रोह को अपने मन में मरता देखते हुए, हम भी बन जाते हैं एक गूंगे इंसान जिसे ये सुन ना पसंद है की वो समाज का एक सभ्य नागरिक है, जो गली के बाहर पडे कूड़े को देखकर चला जाता है, जो सड़क के गढ़हो को बिना देखे चलता रहता है, जो अपना काम कराने को रिश्वत देता है और सभ्य बना रहता है ऐसे ही सभ्य हम लोग अपनी आने वाली पीढ़ी को कैसे सभ्य बना रहे हैं ये लिखने की कोशिश है


पिता की अंगुली पकड़ कर
सड़क पर चलता बच्चा,
अंगुली को छोड़ना चाहता है
मगर डरता है
अंगुली छोड़कर पड़ने वाली डांट से,
दोबारा सड़क पे न लाये जाने के भय से
और यहाँ से शुरू करता है
सड़क पे चलता बच्चा अपनी जिंदगी
विद्रोह करने की अपनी क्षमता को
डर के साए से दबाते हुए

पिता के पीछे पूजा घर में
पालथी लगा के बैठा बच्चा
कूदकर बाहर जाना चाहता है
मगर डरता है
कूदकर जाने से पड़ने वाली डांट से
मन में बैठा दिए गए अंध भक्तिभाव से
और यहाँ से शुरू करता है
पूजा घर में बैठा बच्चा अपनी जिन्दगी
विद्रोह कर सकने की अपनी क्षमता को
धर्म की चादर से ढकते हुए

बच्चे के विद्रोह को दबाते हुए हम लोग
बच्चे को "ईसा" बनाना चाहते है
मगर नहीं जान पाते
विद्रोह करने पे ईसा, ईसा हुए
विद्रोह करने पे बुद्ध, बुद्ध हुए
विद्रोह करने पे महावीर, महावीर हुए
नहीं सोच पाते इन हज़ारो वर्षो में
हमने खरबों बच्चे पैदा किये
मगर बुद्ध, महावीर और ईसा ?
अगर दुनिया चाहती है भविष्य
तो पांच खरब बच्चे नहीं
पांच खरब विद्रोही पैदा करने होंगे
पांच खरब विद्रोही

Saturday, October 2, 2010

काली


अंतर्मन में मेरी पहली प्रस्तुति है - "काली" काली, बहुत घरों में रहने वाली, सीधी साधी सी एक लड़की की दशा को बताती है मैं चाहता हूँ हर काली के जीवन में रंग भर दिए जाएँ - ऐसे रंग, जो उसे अहसास दिलाये कि जीना सिर्फ एक ईंट हो जाना नहीं है |



सड़क से मकान की छत तक
ईंटे उठाती उठाती 'काली'
खुद ईंट बन जाती है॓
ईंट जो मकान बन के
सब सहता रहता है
धुप बारिश और सर्दी
जीवन को बचाने को

'काली' भी ईंट बन गयी है
जुल्म झेलने को खड़ी है
पति की गाली सुनती है
चुप खड़ी देखती रहती है
आगे जाकर काम करती है
आधा पेट भूखी रहती है
बच्चो के सपने बुनती है


'काली' भी ईंट बन गयी है
ईंट जिसे किसी एक दिन
फिर मिटटी हो जाना है
काली जो फूल सी आई थी
माँ बाबा के आँगन में
अब ईंट बन गयी है
कुछ फूलो को बचाने को

काली हम सब के घर में
रहती है हमेशा से चुपचाप
उसके मिटटी में जाने से पहले
आओ सब इंटो में रंग भर दे
काली कल फिर जहाज़ उड़ाएगी
काली रंगों के साथ भी हमेशा
बस कमाल ही कमाल दिखाएगी



धन्यवाद