अंतर्मन - मानव का वो साथी है जो उसको हमेशा अहसास दिलाता है की मानव भगवान का अंश है सच्चे अर्थो में हमेशा साथ खड़ा रहने वाला दोस्त अंतर्मन ही तो है जो हमेशा हमे कुछ भी गलत करने से रोकता है किसी भी काम से पहले मन कहता है रुक, सोच ले और हर गलत कदम पे वो अहसास कराता है कि भगवान देख रहा है लेकिन, आदमी अंतर्मन की आवाज को अनसुना कर आगे बढ़ता है; सभी गलत काम करता है, लोगो को ठगता है और फिर कहता है कि अच्छा हुआ जो ये काम कर लिया, कितना पैसा कमा लिया (जबकि उस समय भी अंतर्मन कहीं डर रहा होता है)

जब यह योजना बनी की अंग्रेजी ब्लॉग में रोसेन लगातार कुछ लिख रही है और मैं पंचतत्व में हिंदी ब्लॉग की कमी को पूरा करूँ तो मुझे लगा कि अंतर्मन की आवाज से बेहतर और क्या होगा लिखने को - जिसे हम सब सामने नहीं आने देना चाहते कोशिश है एक छोटी सी अंतर्मन की दशा बताने की - अगर लगे कि मैं उस आवाज को सुन पाया हूँ तो स्वागत करना; अन्यथा, एक दोस्त की तरह मुझसे इस बात की मंत्रणा करना कि क्यों मैं चाह कर भी अंतर्मन की आवाज़ सुन नहीं पाया

Saturday, October 23, 2010

क्या आपने कभी अपने अन्दर के गुस्से को देखा है छूकर , अगर नहीं तो उसको देखो, वो कैसे कितनी चादरों में लिपटा हुआ, मन मसोस कर बैठा हुआ है हम चाहते है शहर की सड़के अच्छी हो, हम चाहते हैं बहुत से लोग अपने काम समय से करे, जिस से जीना थोडा आसान हो जाए हम चाहते हैं क्यों कोई बोलता नहीं, लेकिन सोचते नहीं की हम भी उसी में से एक हैं उसी तरह न बोलते हुए, अपने गुस्से अपने विद्रोह को अपने मन में मरता देखते हुए, हम भी बन जाते हैं एक गूंगे इंसान जिसे ये सुन ना पसंद है की वो समाज का एक सभ्य नागरिक है, जो गली के बाहर पडे कूड़े को देखकर चला जाता है, जो सड़क के गढ़हो को बिना देखे चलता रहता है, जो अपना काम कराने को रिश्वत देता है और सभ्य बना रहता है ऐसे ही सभ्य हम लोग अपनी आने वाली पीढ़ी को कैसे सभ्य बना रहे हैं ये लिखने की कोशिश है


पिता की अंगुली पकड़ कर
सड़क पर चलता बच्चा,
अंगुली को छोड़ना चाहता है
मगर डरता है
अंगुली छोड़कर पड़ने वाली डांट से,
दोबारा सड़क पे न लाये जाने के भय से
और यहाँ से शुरू करता है
सड़क पे चलता बच्चा अपनी जिंदगी
विद्रोह करने की अपनी क्षमता को
डर के साए से दबाते हुए

पिता के पीछे पूजा घर में
पालथी लगा के बैठा बच्चा
कूदकर बाहर जाना चाहता है
मगर डरता है
कूदकर जाने से पड़ने वाली डांट से
मन में बैठा दिए गए अंध भक्तिभाव से
और यहाँ से शुरू करता है
पूजा घर में बैठा बच्चा अपनी जिन्दगी
विद्रोह कर सकने की अपनी क्षमता को
धर्म की चादर से ढकते हुए

बच्चे के विद्रोह को दबाते हुए हम लोग
बच्चे को "ईसा" बनाना चाहते है
मगर नहीं जान पाते
विद्रोह करने पे ईसा, ईसा हुए
विद्रोह करने पे बुद्ध, बुद्ध हुए
विद्रोह करने पे महावीर, महावीर हुए
नहीं सोच पाते इन हज़ारो वर्षो में
हमने खरबों बच्चे पैदा किये
मगर बुद्ध, महावीर और ईसा ?
अगर दुनिया चाहती है भविष्य
तो पांच खरब बच्चे नहीं
पांच खरब विद्रोही पैदा करने होंगे
पांच खरब विद्रोही

4 comments:

  1. You beautifully write emotions of common man in too good poetry.

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  2. How beautifully you describe the conscience of common man in your blogs.

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  3. Absolutely True ! Ajay Ji, I like the way of your presentation of various aspects of society. Thanks for sharing with us. Keep it up.

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  4. very true..though usually most of us dont think abt this but we should actually..and nice poetry too.

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